।।श्रीहरि।।
( जानकी -मंगल पृष्ठ 21)
राम -विवाह -4
( छंद 153 से 160 तक)
जनक अनुज तनया दोउ परम मनोरम।
जेठि भरत कहँ ब्याहि रूप रति सय सम।153।
सिय लघु भगिनि लखन कहुँ रूप उजागरि।
लखन अनुज श्रुतकीरति सब गुन आगरि।।
राम बिबाह समान बिबाह तीनिउ भए।
जीवन फल लोचन फल बिधि सब कहँ दए। ।
दाइज भयउ बिबिध बिधि जाइ न सो गनि।
दासी दास बाजि गज हेम बसन मनि।।
दान मान परमान प्रेम पूरन किए।
समधी सहित बरात बिनय बस करि लिए।
ं गे जनवासे राउ संगु सुत सुतबहु।
जनु पाए फल चारि सहित साधन चहु।।
चहु प्रकार जेवनार भई बहु भाँतिन्ह ।
भोजन करत अवधपति सहित बरातिन्ह।।
देहि गारि बर नारि नाम लै दुहु दिसि
ं जेंवत बढ़्यों अनंद सुहावनि सो निसि।160।
(छंद-20)
सो निसि सोहावनि मधुर गावति बाजने बाजहिं भले।
नृप कियो भोजन पान पाइ प्रमोद जनवासेहि चले।।
नट भाट मागध सूत जाचक जस प्रतापहिं बरनहीं।।
सानंद भूसुर बृंद मनि गज देत मन करषैं नहीं।20।
(इति जानकी-मंगल पृष्ठ 21)