भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जानकी -मंगल / तुलसीदास/ पृष्ठ 7

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:01, 15 मई 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

।।श्रीहरि।।
    
( जानकी -मंगल पृष्ठ 7)

विश्वामित्रजी का स्वयंवर के लिये प्रस्थान

( छंद 40 से 48 तक)
 
 देखि मनोहर मूरति मन अनुरागेउ।
बँधेउ सनेह बिदेह बिराग बिरागेउ।41।

प्रमुदित हृदयँ सराहत भल भवसागर।
जहँ उपजहिं अस मानिक बिधि बड़ नागर।42।

पुन्य पयोधि मातु पितु ए सिसु सुरतरू।
 रूप सुधा सुख देत नयन अमरनि बरू।43।

केहि सुकृती के कुँअर कहिय मुनिनायक।
गौर स्याम छबि धाम धरें धनु सायक।44।

बिषय बिमुख मन मोर सेइ परमारथ।
इन्हहिं देखि भयो मगन जानि बड़ स्वारथ।।45

 कहेउ सप्रेम पुलकि मुनि सुनि महिपालक।
 ए परमारथ रूप् ब्रह्ममय बालक।46।

 पूषन बंस बिभूषन दसरथ नंदन।
नाम राम अरू लखन सुरारि निकंदन।।

 रूप सील बय बंस राम परिसुरन।
समुझि कठिन पन आपन लाग बिसूरन।48


(छंद6)


लागे बिसूरन समुझि पन मन बहुरि धीरज आनि कै।
लै चले देखावन रंगभूमि अनेक बिधि सनमानि कै।।

 कौसिक सराही रूचिर रचना जनक सुनि हरषित भए।
तब राम लखन समेत मुनि कहँ सुभग सिंहासन दए।6।

 
(इति पार्वती-मंगल पृष्ठ 7)

अगला भाग >>