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जुगत / शरद रंजन शरद

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भरता हूँ प्याली

कोर को बचाकर

और थोड़ी बची रहने पर

कह देता बस


पाता हमेशा

पेट से कम

आख़िर में फिर भी

उठाता जूठन


देह की नाप से तंग

रहता कपड़ा

और दर्ज़ी बड़ी मिन्नत के बाद

होता सिलने को तैयार


उजाले के लिए देर तक

मैं ही होता प्रतीक्षारत

फिर परदे से बुलाकर थोड़ा अन्धकार

करता दिन का विचार


भरकर सारे शब्दों की आवाज़

साधता उसमें कुछ मौन

हर सफ़र मुलाक़ात में

दो क़दम पहले ठहर

झुककर आगे मिलाता हाथ


ज़रूरी और अपने हिस्से का

रहता पहले से ही थोड़ा

और इस्तेमाल के वक़्त

बचा लेता उसका एक टुकड़ा


इस तरह सेंतकर

सत का पानी

मन का सूत

रखा है अन्तस के कोषों में


इस विशाल मरुथल में जब

पृथ्वी लगाकर ऊंट के पाँव

लथपथ दौड़ेगी रेत-रेत

मैं बन जाऊँगा उसका पेट !