महापुरुष का कथन और पराजित प्रेम / सूरज
मैं किसी ईश्वर की तलाश में हूँ ।
जिस किसी ने कहा ईमानदार स्वप्न देखने वालों की मदद चाँद-तारे आदमी-आकाश सूरज-बयार सब करते हैं गलत कहा / प्रेम करते हुए मुझे अपनी प्रेमिका से भी यह आशा थी आशा ही रही औरों की तो बात क्या / तुम्हे खोने के डर से थरथराता रहा और तुम थी कि मुट्ठी की रेत थी / डर था मेरे स्वप्न को बेईमान कह दिया जायेगा और तुम वो पहली थी ।
तुम कब थी ही यह बताना कठिन है पर जब थी मैने ठान रखा था तुम्हारे होंठों के संतरें वाले रँग मैं कौमी रंग बनाऊँगा उन संतरों के बाग मशहूर हो जाएँगे और मेरी प्यास अमिट / मेरी अमिट प्यास की ख़ातिर मेरे स्वप्न के भव्य चेहरे पर लम्बी नीली नदी का दिखता हुआ मखमली टुकड़ा है ।
(बाकी बची नस सरस्वती की तरह ओझल)
(ठान अब भी वही है और तुम ‘अब भी’ हो)
हम ऐसे जुड़े कि निकलना बिना खरोंच के सम्भव ना था / अपनी खरोंच से पहले यह मानना नामुमकिन था कि आत्मा से ख़ून रिसता है / तुम्हे मेरी आवाज़ से डरने की कोई वज़ह नहीं जैसे मेरे लिए तुम्हारी ख़ुशी से विलग कोई मकसद नहीं /
डर है तुम्हे बजती हुई मेरी नवासी चुप्पियाँ न सुनाई पड़े
एक कम नब्बे की संख्या, एक जिप्सी, एक बस और एक ही रात / क्या ख़ुद प्रेम को पराजित होने के लिए इन सबका ही इंतज़ार था / पसन्द-नापसन्द के बीच कोई झूला नहीं होता / कोई कविता नहीं आई मुझे बचाने / सूरज देर से निकला / मैने नींद से टूट जाने की प्रार्थना भी की /
प्रेम मकसद है पूरा का पूरा / पर खरोंच भी एक गझिन काम है / दुख देता हुआ / समुद्र सी फेनिल यादें / दरका हुआ आत्मविश्वास / माँगता है
कुछ अजनबी ईंटें,
अपना ही रक्त,
और उम्र से लम्बी उम्र ।