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त्रिवेणियाँ - १ / रेशमा हिंगोरानी

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चाँद की नाव में तारों की सवारी निकली,
उफ़क़ परे से ताकता ही रहा…

डूबते देखी है साहिल में भी कश्ती मैंने!

(उफ़क़ - क्षितिज; साहिल - किनारा)

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तेरी यादों की तितलियों ने सताया था बहुत,
रोज़ आ जाती थीं चुप-चाप दबे पाँव यहाँ…

मेरे मायूस गुले-दिल को छेड़ने के लिए!

(गुले-दिल - फूल जैसा दिल (असल = दिल का फूल )

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ज़बीं से पोंछते अरक़ क्यूँ हो?
नहीं है हम से सरोकार अगर,

तो फिर पलटते ही वरक़ क्यूँ हो?

(ज़बीं - माथा; अरक़ - पसीना; सरोकार - लेना-देना, नाता; वरक़ - पन्ने)

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अगर तू देखे खोल कर मेरी किताबे-हयात,
हर इक पन्ने पे वही हर्फे-मुनक्क़श होगा…

मेरे ही साथ मिटा पाएँगे वो नाम तेरा!

(क़िताबे-हयात - जिंदगी की किताब; हर्फे-मुनक्कश - चित्रित / अंकित लफ्ज़)

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