Last modified on 18 मई 2011, at 09:06

गाँधी जी / हरे प्रकाश उपाध्याय

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:06, 18 मई 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मेरे इतिहास की क़िताब में
सोए पड़े गाँधी जी !
उठो
और मेरे बस्ते से बाहर आओ
कि तुम्हे ढोते-ढोते
दुख रही है मेरी पीठ
कन्धे छिल गए हैं बापू
तुम्हारे उपदेश काम नहीं आते
जीवन में
तुम्हारे बताए रास्ते पर चलकर
मैं कहीं और जा पहुँच जाता हूँ
मंज़िल नहीं मिलती
दोस्त दुश्मन बनकर
लूट लेते हैं रास्ते में

बापू!
तुमने आज़ादी माँगी थी
बनिहार चरवाह
किसान मजूर के लिए
मगर इसे चन्द सफ़ेदपोश, दलालों
हाकिम-हुक्मरानों ने फिर जकड़ दिया है
बेड़ियों में
हम नालायक हो रहे हैं
स्कूल के ब्लैकबोर्ड पर
उग नहीं रहा है सफ़ेद खड़िया
मेरे बस्ते से बाहर आओ बापू
हमारी दशा पर तरस खाओ बापू !