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संजीवनी / नीरज दइया
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मैं मुक्त नहीं हुआ
ओ मेरे पिता !
मैंने दी तुम्हें अग्नि
और राख हुए तुम
तुम्हें गंगा-प्रवाहित कर के भी
मैं मुक्त नहीं हुआ
ओ मेरे पिता !
नहीं रखी राख
नहीं रखी हड्डियां
नहीं बैठा रहा शमशान में
संजीवनी ?
गंगा-प्रवाह संभावनाओं का अंत नहीं है !
मेरे भीतर भी
बहती है गंगा एक
और तुम्हारे भी
मैंने तुमको पाया
मेरे ही भीतर
मैं मुक्त नहीं हुआ
मैंने कभी चाही नहीं
मेरे मुक्ति
मैं मुक्त नहीं हुआ
ओ मेरे पिता !