जब तुम आते हो / रमेश नीलकमल
जब तुम आते हो
तो क्यों नहीं उठती है तन में झुरझुरी
मन क्यों नहीं हो उठता है प्रेमिल
क्षण क्यों सिमट जाना चाहते हैं
तनहाइयों में?
ढ़ेर सारे सवाल उगते हैं मन में
जब तुम आते हो
जब तुम आते हो/केवल चौबीस घंटे
वर्ष भर में केवल चौबीस घंटे
रहते हो मेरे पास/तब क्यों डराती है मुझे
तुम्हारे काले हो रहे चेहरे पर उगी मुस्कान
क्यों उभर आता है मेरी स्मृतियों में
विगत पचास वर्षों का एक-एक मुक्ति-प्रसंग
जब कि खुश होने के लिए जरूरी है
तुम्हारा मेरे पास होना
पर खुश नहीं होने देता मुझे
तुम्हारा बौना घिनौना वर्तमान
सत्य और अहिंसा के खिलाफ
हथियारों से लैस खड़ा वर्तमान
तब भविष्य के बारे में सोचना
बेमानी हो जाता है/बेमानी हो जाता है
अगले वर्ष तुम्हारे आने पर
स्वागत करने का हौसला
अन्तर्मन का आह्लाद
कैसे करूं फरियाद कि जब तुम आते हो
आकाश इसी तरह रोता है
अंधकार इसी तरह विहँसता है
और जब तुम बीत जाते हो
तब भी कुछ नहीं बदलता।