सलवटों में यादें / कुमार रवींद्र
सलवटों में लेटी हैं यादें
गुमसुम चुपचाप ।
सन्नाटा एक शब्द है
जो दीवारें बोलतीं हैं -
चरों और मौसम की लकीरें खिंचीं हैं
बिना किसी आकृति के;
उँगलियाँ थक रही हैं सलवटों को सँभालते ।
बिस्तर की सलवटों में
लेटी हैं यादें
बेहद उदास ।
एक-एक सलवट में
छिपी है देह की गरमाहट
उस आग की तरह
जो पानी के नीचे मौन सुलगती है |
आँखों में भर गयी है प्यास
बहुत ही हताश ।
सलवटों में लेटे हैं सपने
दूर छूट गये सपने
जुगनू से दमकते सपने ।
जहाँ तुम्हारी बाँह थी
वहीँ पर बैठी है एक निहायत ही नाज़ुक याद ।
झरोखे से झाँकती धूप का यह टुकड़ा
तुम्हारी शोख आँख-सा चमक रहा है ।
यहीं सलवटों में लेटी हैं
तुम्हारी हँसी
चूड़ियों की खनक
और पायल की झंकार -
वह जो लेटी है सूरज की छोटी-सी पंक्ति
कुछ नहीं तुम्हारी उजली खिलखिलाहट है -
तुम्हारे दाँतों की धुली कतार ।
तुम्हारी साँस के झोंके
उठ रहे हैं वहाँ से
जहाँ तकिये पर तुम्हारा सिर था -
मेरी बाँह भी तो वहीँ थी ।
उँगलियों से
तुम्हारी करवटों को टटोलता
मैं यादों के एकांत में डूब रहा हूँ
बिखर रहा हूँ सलवटों में बार-बार ।