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सोचता हूँ / रमेश नीलकमल
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1
सोचता हूँ
सिर न उठाऊँ
पांव न बढ़ाऊँ
हाथों को रख लूं
मोड़कर
अपनी कांख तले
लेकिन तब क्या
दुनिया ठहर जायगी?
उदास नहीं होगी पृथ्वी?
2
आदमी नहीं हो सकता है निष्क्रिय
उसे तो रचना है भविष्य
करना है
इकीसवीं सदी का संस्कार
भगाना है
आदमी-आदमी के अंतर का अंधकार
लाना है
पृथ्वी के चेहरे पर मुसकान
एक नया विहान
3
मैंने कहा - चुप रहो
उसने कहा - चुप रहो
हम दोनों चुप हैं
यहाँ तक कि खुद
अपने खिलाफ भी नहीं बोलते
खाने के सिवा
कभी भी मुंह नहीं खोलते
केवल आंखें दिखाते हैं
नजरों ही नजरों में
एक-दूसरे को चबा जाते हैं।