भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सोचता हूँ / रमेश नीलकमल

Kavita Kosh से
योगेंद्र कृष्णा (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:12, 20 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश नीलकमल |संग्रह=कविताएं रमेश नीलकमल की / रमे…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1

सोचता हूँ

सिर न उठाऊँ

पांव न बढ़ाऊँ

हाथों को रख लूं

मोड़कर

अपनी कांख तले

लेकिन तब क्या

दुनिया ठहर जायगी?

उदास नहीं होगी पृथ्वी?

2

आदमी नहीं हो सकता है निष्क्रिय

उसे तो रचना है भविष्य

करना है

इकीसवीं सदी का संस्कार

भगाना है

आदमी-आदमी के अंतर का अंधकार

लाना है

पृथ्वी के चेहरे पर मुसकान

एक नया विहान

3

मैंने कहा - चुप रहो

उसने कहा - चुप रहो

हम दोनों चुप हैं

यहाँ तक कि खुद

अपने खिलाफ भी नहीं बोलते

खाने के सिवा

कभी भी मुंह नहीं खोलते

केवल आंखें दिखाते हैं

नजरों ही नजरों में

एक-दूसरे को चबा जाते हैं।