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बिजूका / रमेश नीलकमल

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मैं एक बिजूका हूं

कंधे उचकाता हूं

तो उड़ जाती है चिड़िया

ढनमना जाते हैं जानवर।

मैं एक बिजूका हूं

मुंह खोलता हूं तो सरसराने लगते हैं किताब के पन्ने

अंधेरा उजाले में बदल जाता है

मैं एक बिजूका हूं

फसल उगे-पनपे-बढ़े

हो जाय तैयार दाना

जाए पहुंच खेत से खलिहान

देता हूं मैं ऐसी ड्यूटी

नहीं मानेंगे आप?

मैं बिजूका हूं

रातभर देता हूं पहरा

दिन में भी नहीं सोता

भले ही किसान

मेरे आजू-बाजू न रहे

नहीं लेता मैं झपकी भी।

एक दिन घोड़े ने सोचा -

बिजूके की ऐसी-तैसी

लकड़ी पर लटकी बाँह

बाँह पर टंगी कमीज

औंधे घड़े पर

चूने से बनाया गया चेहरा

भला डरा सकता है घोड़े को?

किस्सा अहवाल यह कि उस रात

रातभर घोड़ा फानता रहा टाप

मुझतक पहुंच नहीं पाया

सुबह देखता रहा मुझको

भरकर आंखों में आश्चर्य

कि रातभर मैं किस तरह करता रहा पहरेदारी

कि दिखता रहा मैं घोड़े को

खेत में यहां-वहां

हर जहां

जहां वह मुंह मारना चाहता था।

मैं बिजूका हूं

मैं नहीं मांगता अपने हिस्से का खेत

अपने हिस्से की मजदूरी

पहरेदारी के एवज में

जबकि हमारे देश के पहरेदार

माल पहले हड़पते हैं

देते हैं पहरा बाद में

जोर-जोर से बतियाते हैं

कि उन-सा पहरेदार ढूँढ़े नहीं मिलेगा।

जी हाँ, नहीं मिलेगा वैसा पहरेदार

जो माल पहले लूटे

फिर देता रहे पहरा

खाली खजाने पर।

मैं बिजूका हूं

मैं इन सब के विरुद्ध आवाज लगाऊंगा

लानत-मलामत करूंगा कि पहरेदार बनते हैं

तो पहरेदार बने रहें

लुटेरा न बनें

शर्म से मेरा भी माथा न झुकाएं।