भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मत लो हाथों में हाथ / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:03, 20 मई 2011 का अवतरण
मत लो हाथों में हाथ
जब तक कोई संकेत न हो तुम्हारे पास
देने के लिए ।
मुर्दा हाथों को मिलाकर
तुम क्या कहना चाहते हो
मैं समझ नहीं पाता ।
कब तक स्पर्शों की लाश
सिकुड़ी हुई त्वचाओं को
सहलाते रहोगे इसी तरह, मेरे बन्धु
वासन्ती इन्द्रधनुष को
अपनी मुट्ठी में बंद करने की तुम्हारी कोशिश
नाकाम ही रहेगी
यदि सूरज की छुवन को
तुम कमरों में बंद करत रहोगे ।
हथेली की शिराओं में
जो दानव-रक्त प्रवाहित है
उसकी यक्ष-संज्ञाओं को जगाओ
कि आदिम स्पर्श की भाषा का पुनर्जन्म हो
और
हाथ से हाथ तक
पुलक के एक पुल का निर्माण हो सके
जिसे छूने से
हम टूटें नहीं - जुड़ें
और भर जाएँ एक-दूसरे से ।