भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आ, अब लौट चलें / धरमराज
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:21, 20 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धरमराज |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> घूमना एक दिनचर्या है …)
घूमना एक दिनचर्या है
बिटिया के बालहठी प्रश्न
मेरे लिए बन गए हैं
एक दिनचर्या
गांधी चौराहे पर पहुँच
यकायक मेरे पैर ठिठक गए
मैंने गांधीजी की मूर्ति को प्रणाम किया
बिटिया से भी ऐसा ही करने को कहा
उसने न में सिर हिलाया
बहुत कहने के बाद भी
मैं उसे गांधीजी को प्रणाम नहीं करा पाया
वह रोने लगी
और बोली -
ऐसी मूर्तियाँ भूत होती हैं - पापा
यदि ये गांधी हैं तो
चुप क्यों हैं
पापा ! गांधी के बारे में
दीदी बताती हैं
उन्होंने हमें आज़ादी दिलाई
सत्य, अहिंसा के मार्ग पर चलना सिखाया
वे बुतपरस्त तो नहीं थे
फिर हमने उन्हें बुत क्यों बनाया ?