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आए फिर दिन / कुमार रवींद्र
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उजले खरगोश-से
आए फिर दिन
धुँध के उतार वस्त्र
निकली है भोर
मृगछौनी धूप करे
डार-डार शोर
लग रही है आँख-आँख
सचमुच कमसिन
साबुन से धुली-धुली
फैल गई साँस
नीलकंठ हो गया
नभ का संत्रास
सपने उजियालों के
आँख रही बिन
नहा रही दूध से
सूरज की धार
खेल रहा यौवन फिर
बचपन के द्वार
लगा रही बालों में
घास नए पिन
क्षितिजों तक फैल गए
धुले-धुले ठाँव
बाग-बाग खेत-खेत
बैठ रही छाँव
कोयल की कूक रही
सुधियों को गिन