भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कैलेंडर में धूप / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:47, 22 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= कुमार रवींद्र |संग्रह=आहत हैं वन / कुमार रवींद्…)
आज फिर
कैलेंडर में धूप है
तारीखें गंधों की
आओ, दीवारों पर टाँगें
एक नए सूरज का जन्मदिन
पिछली तारीखों में
रात थी - कोहरे थे
असमी संध्याएँ थीं
घटनाएँ थीं उदास
थकी हुई साँसें थीं
वन्ध्या आस्थाएँ थीं
किन्तु आज फिर
वसंत के दिनांक हैं
किरणें हैं आतुर कमसिन
कितने ही
आतप-वर्षाएँ
पतझर औ' बर्फ झेलकर
लौटे हैं
ऋतुराजी सपने
गीतों के लेकर आखर
और गये वर्ष को उतार कर
फेंक रहे पलकों से
नए-उगे छिन