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रीढ़ / अनिल विभाकर
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इस देश का कोई कोना नहीं बचा
कोई बाजार नहीं
हर जगह तलाशा-पूछा
लौटना पड़ा खाली हाथ
दौलत के बल पर गुर्दा मिला, जैसा चाहा वैसा
खून मिला, बिल्कुल असली
शरीर के ढेर सारे अंग मिले
किराए पर मिली कोख भी
जहां भी की रीढ़ की बात
ढेर सारी रीढ़ दिखाई सौदागरों ने
पसंद नहीं आई एक भी
सब लुंज-पुंज
मुंहमांगी कीमत देने को तैयार था
धरा रह गया पूरा खजाना
एक नहीं ढेर सारी मिलीं तनी हुई तर्जनियां
कहीं नहीं मिली तनी हुई रीढ़
दुकानदार ने कहा - यहां क्या कहीं नहीं मिलेगी
विष्णु के सात फनों वाले
शेषनाग की तरह दुर्लभ है यह।
बिना तनी हुई रीढ़ के चल रहा है यह देश
यही है देशवासियों के दुख की असली वजह