भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जंगल हरे हो जाएँ फिर / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:02, 22 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= कुमार रवींद्र |संग्रह=और...हमने सन्धियाँ कीं / क…)
बहुत मुमकिन है
कि जंगल ये हरे हो जाएँ फिर
लग रहा है
ठूँठ के नीचे जड़ें ज़िंदा अभी भी
सुनो, उनमें कोंपलें
फिर फूट आएँगी कभी भी
बहुत मुमकिन
शहद से छत्ते भरे हो जाएँ फिर
हाँ, नदी को
ढूँढ़कर लाना यहाँ होगा ज़रूरी
और यह भी देखना होगा
धुओं से रहे दूरी
बहुत मुमकिन
भोर के सपने खरे हो जाएँ फिर
सींचना होगा ज़रूरी
आँसुओं से भी इन्हें कल
अभी जो यह दिख रहा है
राख में डूबा वनांचल
बहुत मुमकिन
ढाई आखर बावरे हो जाएँ फिर