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अपने हाथ हुए पत्थर के / कुमार रवींद्र
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और उम्र भर
किए इकट्ठे हमने सपने
इधर-उधर के
बचपन में खेले-खाए
राजा बनने के सपने जोड़े
आदमक़द होने की धुन में
हुए 'रेस' के लंगड़े घोड़े
युवा हुए जब
हमें मिले दिन कुछ अलबेले
जलसाघर के
उन्हीं दिनों हम
एक काँच की गुड़िया लाए
उसे सँवारा
और ज़िंदगी भर उस पर ही
सोने-सा यह तन-मन वारा
उसके सँग ही
रचे अनोखे रंगमहल
भीतर-बाहर के
बरस-दर-बरस हमने बेचे
बड़े हाट में अपने सूरज
उसके बदले मिले हमें हैं
सिन्धु-पार के बौने अचरज
उन्हें सँजो कर
रखते-रखते अपने हाथ
हुए पत्थर के