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देह का इतिहास इसका भी / कुमार रवींद्र

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यह सही है
यह जो बैठी है अधूरी-जान बुढ़िया
देह का इतिहास इसका भी रहा है

कभी यह भी अप्सरा थी
लोग इसको पूजते थे
सगुनपंछी तब इसी की
चौखटों पर कूजते थे

यह सही है
उम्र भर का दर्प है
इन आँसुओं में जो बहा है

कल्पवृक्षी देह इसकी
तब सभी को तारती थी
रात के अदृश्य देवों की
यही तब आरती थी

यह सही है
रात बीती जो
उसी का हाल सपनों ने कहा है

यह अपाहिज अब
समय की चाल को ही
गुन रही है
आग थी कैसी अलौकिक
देह यह जिसमें दही है

यह सही है
सहा पहले जो सभी ने बीतने का दर्द
इसने भी सहा है