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पते ये हैं नहीं / कुमार रवींद्र

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अजनबी है
यह शहर या वह शहर - सारे शहर

पत्थरों के हैं बने
महसूसते ये कुछ नहीं
धूप-आँगन-पेड़-पौधों के
पते हैं ये नहीं

बंद कमरों में
गुज़रती है शहर की दोपहर

हवा नकली
औ' मशीनी साँस के हैं काफ़िले
गुंबदों में सिर्फ़
चाँदी के झरोखे ही मिले

बँट रहा है
वहीँ से हर गाँव में मीठा ज़हर

गाँव-घर-चौखट
सभी कुछ लीलते ये
आदमी की खाल तक को
छीलते ये

कुछ दिनों में
साँस को कर डालते हैं खण्डहर