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बिन्दु और वृत / माया मृग
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फैलो !
दूर-दूर तक
कागज के हाशिये की
सारी सीमाओं को
नकार कर, क्योंकि
रेखाओं के ताने-बाने
जड़ से उखाड़कर
फैलने वाला
प्रिधियों को जीतता हुआ
विशाल वृत्त बन जाता है,
भीतर ही भीतर
सिकुड़ने वाला
बस ‘बिन्दु’ रह जाता है।