भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरा दुख / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समेट लेता हूँ अपने दुख शब्दों में कहीं

बाढ़ की चपेट में आ गया हो कोई गाँव जैसे

दिखती है एक छत अब भी

एकत्रित हैं गाँव के लोग जहाँ

खो गया बेटा किसी का

बन चुके कई बच्चे अनाथ

गुज़रे सालों की तरह

उखड़ चुका संबंधों का पेड़ भी

कहाँ थी मज़बूत जड़ें इसकी

खड़ा था अब तक

मेरे टूटे हुए छप्पर के सहारे

महीनों बाद सूखता है भीगा पानी

महीनों बाद भीगता है सूखा कंठ

लोग कहते हैं जिसे जीवन, वही पानी

मृत कर देता है कई घर

लोग हो जाते हैं तितर-बितर

कुछ इधर – कुछ उधर

सिमट नहीं पाता किन्तु

क्योंकि मेरा दुख शब्दों में नहीं समा सकता ।