सोनल मानसिंह के नृत्य को देखकर
पाँव थिरके
हुआ अचरज
मंच पर आकाश उतरा - थिर हुआ
उँगलियों ने रचा जादू
एक लय में
बँध गईं सारी दिशाएँ
आँख की गतियाँ हुईं चंचल
और बहने लगीं
उनचासों हवाएँ
साँस जैसे
आरती की लौ
जिस्म पूरा देव का मंदिर हुआ
नदी उमड़ी सुरों की
बाहर जहाँ
फिर गूँज बन भीतर समाई
वही बजता
एक अनहद नाद है
वह भी दिया हमको सुनाई
सृष्टि का जो रहा
आदिम सुर
वही जैसे अवतरित आखिर हुआ
नृत्य करती हुई पगचापें
हमें फिर
ले गईं सागर किनारे
जहाँ पहली बार देखे
साथ हमने
चाँद-सूरज और तारे
उसी तट पर
लगा जैसे
जन्म अपनी देह का फिर-फिर हुआ