भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दस्तक अंदर से वसंत की / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:24, 25 मई 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुनो, सुनो तो
दस्तक अंदर से आती है
देखो, शायद फिर वसंत आया है घर में

ऐसी ही दस्तक आई थी
बरसों पहले
देख तुहारी हँसी हुए थे
धुँध सुनहले

और तुम्हारी कनखी से
बरसा गुलाल था
वही रंग, लगता है, फिर छाया है घर में

ख़ुशबू के एकदम हल्ले से
हम चौंके थे
तुमसे बतियाने के वे
पहले मौक़े थे

तभी तुम्हारे होंठों पर
महके गुलाब थे
शायद फिर वह मौसम गदराया है घर में

छुवन नदी की
और बह गए थे हम पूरे
बरसों उसके बाद रहे दिन
सभी अधूरे

नदी वही फिर
उमग रही है
कोई सपना, लगता, भरमाया है घर में