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चलो, जंगल लाँघ आए / कुमार रवींद्र

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चलो
जंगल लाँघ आए
अब तो बस्ती मिलेगी ही

दूर से आवाज़ रोने की
सुनाई दे रही है
लग रहा है
जिस दिशा में चल रहे हम
वह सही है

दिख रहे आकाश पर भी
धुएँ के साए
अब तो बस्ती मिलेगी ही

पेड़ पर से यहाँ पत्ते झर रहे
मधुमास में ही
भाई, निश्चित है
चिताएँ जल रहीं हैं
पास में ही

उड़ रहा है गिद्ध, देखो
पंख फैलाए
अब तो बस्ती मिलेगी ही

सुनो, जल भी इस नदी का
यहाँ गँदला दिख रहा है
कोई नाला बस्तियों से
निकलकर इसमें बहा है

यहाँ आकर रास्ते भी
मिले भरमाए
अब तो बस्ती मिलेगी ही