भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

और टूटी बाँसुरी होना / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:33, 25 मई 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

और...
टूटी बाँसुरी होना समय का
                        यही सच है


नदी बहकर आ रही है
गए-युग से
आँसुओं की
आहटें भी पास हैं बिल्कुल
वनैले जंतुओं की

हो रहा है
हर तरफ माहौल भय का
                       यही सच है

जो अलौकिकता रही थी
आँख में
वह चुक चुकी है
महासमरों की पुरानी अनी
पाँवों में भुँकी है

प्रश्न भी
धुँधला गया है जय-अजय का
                        यही सच है

रास होना
एक पल का था करिश्मा
हुआ ओझल
बाँसुरी भी क्या करेगी
वक़्त ही हो रहा पाग़ल

वक़्त को भी
चाहिए मौसम प्रलय का
                      यही सच है