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इमरती गली / राजकिशोर राजन

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कहने भर को पटना शहर में
पर सैकड़ों साल से वहीं का वहीं
जैसे कहीं पड़ा हो पहाड़, खड़ा हो बूढ़ा पेड़

बबलू इमरती वाला जब शाम को कड़ाही चढ़ाता
मुँह मीठा हो जाता है इमरती गली का

हाथ में रुमाल रखे गुज़र रहे भद्र लोग भी
एक बार कनखियों से देख लेते रंग इमरती का

तरह-तरह की सब्ज़ियां, किसिम-किसिम के सामान लिए
खोमचे वाले आते-जाते
अगल-बगल के मजनूँ-छाप लड़के मँडराते
शाम होते ही रौनक बढ़ जाती
इमरती गली की

पता नहीं क्या है इस गली में
कि जो गुज़रता यहाँ से पसीने से तरबतर
जाता अपना पसीना सुखा कुछ देर गली में बैठकर

मौसम-बेमौसम यहाँ उड़ती रहती पतंग
जैसे कि ज़माना ही हो पतंगबाज़ी का

हँसते लोट-पोट होती रहतीं लड़कियाँ
यहाँ के लड़कों की, कटी पतंगें देखकर

हर शहर में मिलती हैं ऐसी गलियाँ
जिन्हें तरक्कीपसंद लोग देते हैं गालियाँ
मगर इन गलियों की बाँहें रहती हैं फैली
किसी आगंतुक का करने स्वागत

ऐसी गलियाँ धड़कती हैं शहर के सीने में
ज़िदगी बनकर
और मीठी, जलेबी से ज़्यादा।