खिड़की के उस पार / योगेंद्र कृष्णा
मेरी आशंकाएं
मेरी उदासियां मेरी पीड़ाएं
मेरे कमरे की छतों और दीवारों से टकराकर
लौटती हैं बार-बार मेरे ही पास
रात्रि के गहन अंधकार में
खिड़की के शीशे पर उभरती हैं
हवा में डोलती शाखों-पत्तियों की कोमल छायाएं
और डराती हैं मुझे
एक दुःस्वप्न की तरह
मैं आज़ाद होना चाहता हूं
अपनी दीवारों और छतों से
खिड़की से दिखते
घास पर लेटे-अधलेटे
नंगे-अधनंगे उस आदमी की तरह...
जिसकी उदासियों को सुनने-बांटने के लिए
उसके सामने ही बहती है एक नदी
जिसकी बाजू में ही बाहें फैलाए
खड़े हैं कई पेड़
जिसके सिर के ऊपर से ही गुज़रते हैं
मुलायम पानीदार बादल के टुकड़े...
और भी बहुत कुछ
लेकिन देखता हूं दूर खिड़की के बाहर
अपनी दुनिया से बेख़बर
उसकी बड़ी-बड़ी जागती आंखों में
शीशों और दीवारों के ही ख्वाब हैं
जो मेरी खिड़की से होकर
मेरे कमरे तक आते हैं
और मेरी दुनिया में पनाह चाहते हैं
वह मेरी दुनिया में
और मैं उसकी दुनिया में...
लेकिन क्या मैं सचमुच
अपनी दुनिया उसकी दुनिया से
बदलना चाहता हूं
या कि दोनों ही दुनियाएं
एक साथ चाहता हूं...