भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम क्या जानो / अलका सिन्हा
Kavita Kosh से
योगेंद्र कृष्णा (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:24, 30 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अलका सिन्हा |संग्रह=मैं तेरी रोशनाई होना चाहती …)
दिन भर की लम्बी यात्रा के बाद
जो थोड़ा-सा वक्त
तुम्हारे साथ बीतता है
तुम क्या जानो
वह मेरे लिए कितना कीमती होता है।
अलग-अलग भूमिकाओं की फाइलें निपटाते
प्लास्टिकी मुस्कान से परे
जब होती हूँ मैं तुम्हारे स्नेहिल आगोश में
वो नितांत निजी पल
कितने अनमोल होते है!
उस वक्त मैं कोई नहीं होती हूँ
न कोई संबंध, न संबोधन
तमाम अवरणों से परे
एक ऐसा शून्य हो जाती हूँ
जो तुम्हारे संयुक्त होने पर
अनंत को पाता है
नीले आकाश, गहरे सागर में
विलीन हो जाता है...
काश तुम जान पाते
कि दिन भर की लम्बी यात्रा के बाद
जो थोड़ा-सा वक्त तुम्हारे साथ बीतता है
वह मेरे लिए कितना कीमती होता है!