भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बतियाती मछलियां / माया मृग

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:57, 30 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=माया मृग |संग्रह=...कि जीवन ठहर न जाए / माया मृग }} {{KKC…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मानसरोवर के ठहरे जल से दूर
जाने कहाँ को
जाने कहाँ के लिए
उड़ान भर रहे हैं, हंस।
आफलक फैले हैं
उनके गोरे पंख।
जिनसे लगातार झर रहे हैं
सफेद-सफेद रोंयें।
डब्-डब् रो रहे हैं हंस,
मानसरोवर से बिछड़ते।
आँसुओं की हल्की-हल्की चोट से
पड़ जाते हैं
छोटे-छोटे गड्ढ़े,
पौष की ठण्डाई रातों में
जमकर बर्फ हो गए
मानसरोवर के जल में।

बतियाती मछलियां
बाहर जकड़ लिए हैं पौष ने
हवा, पानी और आकाश।
आओ, गहरे में चलें
शायद तल में हो कुछ
गरमाई,
बस इतनी कि
जी सकने जितनी
कि जम ना जाये कहीं,
धमनियों में रक्त,
कहीं मानसरोवर भर न
जाये,
कमलों की जगह,
हमारी दुर्गंधाती लाशों से !