नदी लिख जाती है कविता / माया मृग
कभी बैठे-बिठाये
या रात-ब-रात
उचटी नींद में
यूं ही हो जाती है कविता !
एक लम्बी चुप
और सामने बैठे संत की
आँखों से झांककर
मुस्कराती रहती है कविता।
एक ईमानदार ठहाका भी
कम नहीं है कविता से !
याद आ जाने भर से
कविता हो जाती है।
जहाँ कहीं से भी
गुजरती है नदी
वहीं रच जाती है-महाकाव्य !
गुलमोहर की पत्तियों से ही
बनते है छंद
नीली चिड़िया के पंखों से ही
झरते हैं नन्हें-नन्हें अलंकार !
कविता
ऑफिस की फाइल का
निपटान नहीं है कि
कवि हाजरी भर भर दे।
ऑफिस की कॉलबेल और
कविता में
फर्क इसी से है कि
कवि अफसर नहीं है।
वह तो
शीशम या कीकर की छांव में छांवता
फक्कड़ फकीर है,
जो बैठे-खड़े,
सोते जागते
निहारता है पेड़,
चुनता है पत्तियां
और कभी चुप रहकर
कभी ठहाकों से
रचता है बेशुमार कवितायें
....... बेशुमार कवितायें !