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याद: एक अनुभूति (एक) / माया मृग
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कभी अचानक
तुम्हारी याद आ जाने पर
डूबने लगता है मन
जैसे ठहरे पानी में पत्थर।
तुम्हारी स्मृति का पल
दहलीज़ पर खड़ा रखता है मुझे
कि दरवाजे के अगले रूख का
किसी का क्या पता
आधा खुला है-आधा बंद है।
यूं कि जैसे
ये मेरी पराजय के क्षण हैं।
उढ़के दरवाजों से झांक भर लेना-
बाहर को
उत्सुकता से-
मेरे टूट जाने कि क्रिया का हिस्सा है
तब लपक कर दौड़ता हूँ भीतर -
कमरे में
मद्धम बल्ब की रोशनी में
टटोलता हूँ एलबम
जिसमें क्रम से लगी हैं
तुम्हारी तस्वीरें।
देखता हूँ-तुम्हारा चेहरा
सन गया है ओस से
और कमरे में घुसपैठ
करने लगा है
बाहर का बेरहम कुहरा।
यूं ही
तुम्हारी याद आ जाने पर
कुहरे में गुम होने लगता है दरवाज़ा
और खोने लगती हैं
बाहर निकलने की
सारी दिशायें।