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बहुत बहाने थे / माया मृग
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बहुत बहाने थे
ठहर जाने को
मैं ठहर सकता था।
कोयल की कूक ने
बांधा
अपने स्वर से,
मोर ने
रास्ता रोक
पंख फैला लिये।
क्रोंचों ने
लम्बी कतार से
बार-बार खींची
लक्ष्मण रेखा।
मैं बहल सकता था।
मैं ठहर सकता था।
दैत्य ने
अट्टहास कर .....
बढ़ाये
अपने-अपने हजार पंजे !
लम्बे-लम्बे
नाखूनों में
कसमसाने लगी
मेरे-ख़ून की प्यास।
सिंह ने दहाड़कर
गज ने गला फाड़कर
चेताया मुझे
मैं सिहर सकता था।
मैं ठहर सकता था।
किंतु
तुम पर थीं मेरी आँखें,
तुम-में था
मेरा प्रिय,
मेरा श्रेय !
रास्ता
अभी बहुत बाकी था
पगडण्डी
अभी-
बहुत दूर .........
जाती थी।