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छूट जाता है सिरा / रविशंकर पाण्डेय

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छूट जाता है सिरा

जिंदगी का
ऊन सा उलझा हुआ
गोला गिरा,
अगर पकड़ो
यह सिरा तो
छूट जाता वह सिरा!

स्वप्न सब
साकार होने के लिए
हैं छटपटाते,
किन्तु मन की बात
आखिर हम
किसे कैसे बतातेय
डर लगा रहता
कहीं कोई
कहे न सिरफिरा!

बीतता दिन
हादसों सा
रात दहशत सी ढली,
है हमेशा
बनी रहती
तन बदन में खलबलीय
अगर
दुखती नब्ज पकड़ो
बदन उठता है पिरा!

एक अंधी दौड़ में
बस बीतते हैं
रात दिन,
जिन्दगी की यह पहेली
सुलझना-
कितना कठिनय
एक कंकड़
कर न दें कुछ
स्वाद मुँह का किरकिरा!