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क्षणिकाएँ-१/रमा द्विवेदी
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१- सूरज,चाँद,तारे,
रोज निकलते हैं
आसमां में,
फिर भी जाने क्यों
झोपड़ी में ,
उजाला नहीं होता।
२- सदियों तक
कोई किसी से
रूठता नहीं,
पर न जाने क्यों खुदा
रूठा है गरीब से।
३-माना कि नासमझ थी मैं,
समझ सकी न तुझको,
क्या तुमने भी,
मुझे समझने की,
ज़रूरत नहीं समझी।
४-किसी को समझ लेने का,
दावा नहीं करना,
जितना भी समझ लो
उतना ही उलझ जाता है।
५-समन्दर में,
भयंकर जीवों की तरह,
इंसान के दिमाग में भी
भयंकर षड़्यंत्र-साज़िश,
एवं सहस्त्रों फ़रेब रहते हैं,
फिर भी इन्हें समझने का
कोई यंत्र नहीं है।