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समुद्र किनारे मीरा / पुरुषोत्तम अग्रवाल

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तुम्हारी बाट देखते-देखते
मैं स्वयं आ पहुँची तुम तक
मेरे समुद्र श्याम
अब तो अपनी बनाओ मुझे – निठुर

मत भरमाओ मुझे
मत छलो स्वयं को अब और
ये जो उठती लहरें
जिनकी बेचैनी बढ़ती पल-प्रतिपल
ये लहरें नहीं तुम्हारे गहन अंतस में
छुपी उत्कंठाएँ हैं – लालसाएँ हैं ये – प्रिय मेरे ।

यह जो विस्तार फैला वहाँ तक दूर तलक
यह विस्तार तुम्हारे पुष्ट, साँवरे वक्षस्थल का है
समुद्रश्याम
अँकवार लो मुझे
यह जिसे सब अस्ताचलगामी सूर्य-सा देख रहे हैं
यह तो है स्यांतक मणि
द्विगुणित कर रही अपनी शोभा
तुम्हारे वक्षस्थल के मादक वर्ण से

तुम्हारा वक्षस्थल जिसके वर्ण में
घुल-मिल गया है मेरी पुतलियों की
आतुरता का वर्ण
जिसमें समा गई है मेरी आँखों की प्रतीक्षा
इतने लोभी हो तुम साँवरे,
तुमने मन ही नहीं, वर्ण भी हर लिया है
समर्पिता का

खड़ी हूँ तुम्हारे किनारे
यहाँ आ पहुँचने के बाद
उत्कंठा से – लज्जा से आरक्त
वैदूर्यमण्डित, स्यांतकसज्जित
तुम्हारे वक्ष के वाष्प से पूरित
आपादमस्तक प्रेमालोकस्नाता स्त्री मैं
खड़ी हूँ तुम्हारी पुकार की प्रतीक्षा में
तुम्हारे स्पर्श की बाट जोहती – साँवलिया !

पगतलों में अपनी लालसा लहरों से गुदगुदी करके
सताओ मत निर्दयी
पल-पल खिसकती है पाँव तले से धरती
डर लगता है ना………नाथ जी!
पगतल को गुदगुदा कर लौटती हर लहर
रेत को ही नहीं थोड़ी-थोड़ी कर मुझे भी ले जाती है
अपने साथ…..
कितना मीठा है डर ………..कितना मादक धीरे-धीरे रीतना……
अब न लौटूँगी कान्हा…..पूरी की पूरी रीते बिना

लौटने में चमकता अँधेरा है......स्वर्ग का......धर्म का..
डरती हूँ घिर ना जाऊँ सदा के लिए चमकीले अँधेरे में
छोड़ आई सब कुछ पीछे
मेड़ता, मेवाड़, वृन्दावन……. सारे रण
पीछे छूट गए हैं तुम्हारी सखी से...... रणछोड
सम्मुख है केवल नील ज्योति प्रसार
शुद्ध श्यामल पारावार
तुम्हारा अनंत प्यार
विराट वक्ष – मेरे एक आधार
अब ना लौटाओ मुझे
बढ़ाओ बाँहें समा लो मुझे .....छुपा लो
छुपा-छुपी में अब तो खिला लो मीता
अपनी मीरा को
लो मुझे....मैं आई.....समुद्रश्याम ।