Last modified on 24 जून 2011, at 19:04

हम कोई नया जंगल / शहंशाह आलम

योगेंद्र कृष्णा (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:04, 24 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शहंशाह आलम |संग्रह=वितान }} {{KKCatKavita‎}} <poem> पता है कि दर…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पता है कि दरिंदे हमारे पीछे
लगाए जा चुके हैं
हमारे शुभचिंतक हमारी ही टोह में लगे हैं

हम कोई नया जंगल बोना नहीं चाहते
न अपनी दिलचस्पियों में
कोई नया इज़ाफ़ा करना चाहते हैं

हम तो इतना भर चाहते हैं कि
बचे रहें मुहब्बत करने के सारे इम्कानात
बची रहे देह में ज़िंदा रहने की इच्छा
बचा रहे चीज़ों का स्वाद
और भाई-बहन यार-दोस्त की
मुस्कुराहट-खिलखिलाहट भी बची रहे

पता है, उनके लौटने की उम्मीद में
हम मूसीक़ी सुनते हैं
तो किसी को बहुत बुरा लगता है
इत्ता बुरा कि नाइट शो देखकर लौटते समय
वह हम पर पीछे से हमला कर देता है

हमलावरों की तरफ से यह अंतिम वार नहीं है

अंतरिक्ष की ओर जाने वाली पतंगें और चिडि़यां
और कुछ नए उपकरण
हमें ख़बरदार करते रहेंगे
हम पर आने वाले ख़तरों के बारे में

हम बचते रहेंगे
हमलावरों के हमलों से
इसलिए कि हम मूसीक़ी सुनना
और प्यार करना छोड़ेंगे नहीं।