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रे मन समझ / ओम प्रभाकर
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रे मन, समझ
मौज़ूद सच !
इस आन्तरिक भूचाल में
रस-गंध की मत बात कर
झरते हुए दिक्काल में ।
उद्दीपनों की बाढ़ से
कुछ और बच
कुछ और बच ।
ये रंगीली-उजली हवा
सब कुछ उड़ा ले जाएगी
जितना बचे उतना बचा ।
अवशेष से आरम्भ कर
कोई नई
अल्पना रच !