भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब हम साथ चलते थे.... / ब्रज श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:21, 28 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ब्रज श्रीवास्तव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <Poem> हम जब साथ चल…)
हम जब साथ चलते थे
तो हुआ करता था एक उत्सव
पेड़ झूमते थे जैसे
आसमान एक बड़े फूल में तब्दील होता था
रास्तों का हर हिस्सा
अपने आप बिछ जाता है आगे आकर
हम जब चलते थे साथ
तो कोई दुख नहीं चलता था
हर सेकंड, जुनून और उमंग से भरा होता था
हमारे हिस्से में केवल वे ही पल आते थे
जो हमारे साथ चलने के बीच होते थे मौजूद
हम जब चलते थे साथ
ऐसा लगता था
उस समय कोई नहीं चल रहा इतना तेज़
उस समय चलने का संतुलन
और किसी को नहीं मालूम
हमने साथ चलते हुए लाँघा बहुत लंबा रास्ता
बहुत से रोड़ों को रोंदा अनजाने में
बहुत से फ़िकरों को दरकिनार किया
हमारे साथ के वक़्त का क्या कहना
वह वक़्फ़ा ही हमारे जीवन का खोखलापन भरता था
जिन लम्हों में हम साथ चलते थे
हम उन्हीं लम्हों में पलते थे