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बैलगाड़ी / भारतेन्दु मिश्र

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यह समय की बैलगाड़ी
सो रहा है मस्त गाड़ीवान
पीकर आज ताड़ी ।
 
राह के अभ्यस्त
दोनों बैल आगे बढ़ रहे हैं
वृक्ष पर बैठे परिन्दे
ग़र्म ख़बरें पढ़ रहे हैं

रात भर जलकर बुझी है
लालटेन टँगी पिछाड़ी ।

कौन जाने किस दिशा में
जा रहे हैं इस तरह हम
जिधर दिखता हरा चारा
उधर मुड़ता प्रगति का क्रम

बज रही हैं घंटियाँ भी
कंठ मे बाँधी अगाड़ी ।
 
देखते सुनते समझते
कह नहीं पाते मगर कुछ
सह रहे हैं एक दिग्भ्रम
भूख प्यास थकान सब कुछ

इस समय का गीत गाता
एक चरवाहा अनाड़ी।