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आत्मकथा की भूमिका / माया मृग

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आने वाले कल के लिए
आज का चित्र छोड़ना जरूरी भी है
मजबूरी भी।
कोई तो डोरियां होनी ही हैं,
कि जिन्हें थाम-थाम
युग का उबरना है !

युग तो कुएँ में रहता है
व्यवस्था के जल में मेंढ़क सा !
मैं ईमानदारी से कहता हूँ
कुएँ की जगत पर
पहली बार कदम मैंने ही रखा है,
वर्जित फल तो आदम हव्वा के बाद
मैंने ही चखा है !
इसलिए संसृति मेरी है
इसे मैं ही जानता हूँ।
मुझे कहने में न कोई झिझक है,
ना शर्म कि
तुम जिसे पहेली समझ ढूंढते रहे हल
मैं ही हूँ वह मर्म !

मैं तुमसे नहीं हूँ
और तुम मुझमें नहीं
मिलते-जुलते किसी चेहरे के कारण
तुम्हें मुझे जानने की भ्रांति है,
इस सच का उद्घाटन
न तो कोई आश्चर्य है, न क्रांति है।
मैं तुम्हें बहुत कम जानता हूँ
फिर भी किसी अज्ञात सहानुभूति से
कोरे पन्ने रंगने को कलम थामी है।
भूलना मत, यह एहसान कर रहा हूँ
अकेला होकर भी मैं तुम्हारे लिए जिया
और अब सच कहकर मर रहा हूँ।

मेरी आत्मकथा वास्तव में आत्महत्या है !
जिसने भी सच कहा,
सच को बहुत सहा है !
फिर मेरा सच
युग के सारे वर्गीकृत सत्यों से
अलग भी है, भयानक भी !
तुम चाहे इसे कहानी मानना
चाहे टुकड़ों में बंटा उपन्यास
कयास ये कि शायद तुम्हें मुझमें
कोई दिलचस्पी हो
ठीक वैसी, जैसी मैंने तुममें रखी।
तो मैं-कपड़े उतार दूं ?
तुमने नंगे नहीं देखे
चाहे तुम सब हो।

नंगा कभी अश्लील नही होता,
श्लील-अश्लील कपड़ों के बाद शुरू होता है।
चलो साहस जुटा लो
तुम कथा आत्महत्या पढ़ने जा रहे हो !
आत्म की कथा !

आत्म- जो नंगा है,
आत्म- जो घिनौना है,
आत्म- जो तुम्हें केवल अकेले में स्वीकार होगा
मैं अकेला हूँ इसलिए
मुझे कोई ख़ौफ नहीं है
मुझ पर तुम्हारे ‘एक्ट’ लागु नहीं होते।

सुनो !
आत्मकथा का पहला अध्याय
सिर्फ परवशता की कहानी,
जिसे मैंने दूसरों के कंधों पर
खेल-खेल झूठ-मूठ में बिताया।
तब मुझे वा तमाम झांसे दिये गये
जिससे मुझे तुम सबके
साथ होने का वहम हुआ।
मुझे नही बताया गया कि
मैं सिर्फ साथ रहता हूँ।

पहले ही अध्याय में कुछ सूत्र हैं अन्विति के
जिनसे
परिशिष्ट तक निर्वाहा गया हैै।
बरगलाने का क्रम
बीच के चैप्टर हैं।
तुम्हें दिक्कत तो होगी
पर शायद तुम
अपनी जिज्ञासा के बल से सह लो,
कहीं कहीं तुम मुझे
असमाजी भी कह लो।
तुम युग में रहते हो इसलिए !
तुम कुएँ में रहते हो इसलिए !
मैं पहला दुःसाहसी हूँ
कुएँ की जगत पर कदम रखने वाला !

पुनश्च
जरूरी है आभार जताना भी,
जो वजह बने आत्मकथा की, उनके प्रति।
मेरे पिता ने लिखवाया शुरूआती पन्ना
और पत्नी ने आखिरी।

भाइयों ने दूर तक ढोया है इसे
और
पाण्डूलिपि बार-बार पढ़ी है मित्रों ने !
संशोधन तो हुए नहीं पर
त्रुटियों के लिए क्षमा याचना नहीं है
मैं सिर्फ आत्म का जिम्मेदार हूँ,
कथा का नहीं ।