समरकंद में बाबर / सुधीर सक्सेना
अनंतिम
चित्रांकन-हेम ज्योतिका
कुछ भी अंतिम नहीं कुछ भी नहीं अंतिम, शेष है एक घड़ी के बाद दूसरी घड़ी, उमंग के बाद ललछौंही उमंग, उल्लास के बाद रोमिल उल्लास, सैलाब के बाद भी एक बूंद, आबदार कहीं दुबका हुआ एक कतरा ख़ामोश बची है पत्तियों की नोंक के भी आगे सरसराहट, पक्षियों के डैनों से आगे भी उड़ान, पेंटिंग के बाहर भी रंगों का संसार, संगीत के सुरों के बाहर संगीत, शब्दों से पर निःशब्द का वितान ध्वनियों से पर मौन का अनहद नाद कोई भी ग्रह अंतिम नहीं आकाशगंगा में, कोई भी आकाशगंगा अंतिम नहीं ब्रह्मांड में, अचानक नमूदार होगा कहीं भी कोई ग्रह अंतरिक्ष में अचानक अचानक फूट पड़ेगा मरू में सोता अचानक भलभला उठेगा ज्वालामुखी में लावा अचानक कहीं होगा उल्कापात तत्वों की तालिका में बची रहेगी हमेशा जगह किसी न किसी नए तत्व के लिए शब्दकोश में नए शब्दों के लिए और कविताओं की दुनियाँ में नई कविता के लिए.
पटाक्षेप
अब लीलाओं के लिए ज़रूरी नहीं रहा मंच न ज़रूरी रहे नट-नटी और सूत्रधार.
ज़रूरी नहीं रही मंच सज्जा कि अब समूची धरती है लीला का रंगमंच और तो और ज़रूरी नहीं रहा अंगराग, न पीतांबर, न मुकुट, अब वर्गीकृत नहीं रहीं भूमिकाएँ कि चाहिए एक अदद धीरोदात्त नायक, एक अदद रूपगर्विता मुग्धा नायिका, और एक अदद विदूषक सहचर.
अब खल विदूषक है और विदूषक नायक और नायक क्लीव अब युग नहीं रहा सुखांत या दुखांत का कि लीला पुरुष की लीला कभी ख़त्म नहीं होती चलती रहती है लीला अहर्निश अविराम पटकथा से पूर्णतः विलोपित कर दिया गया है शब्द पटाक्षेप.
विडंबना
चित्रांकन-हेम ज्योतिका
हाथी के दुश्मन हो गए हाथी दाँत, गंडे के दुल्हन उसी के सींग, हिरनों को बैरी हुआ उन्हीं का चर्म, शेरों-बाघों की शत्रु उन्हीं की खाल और अवयव. विषधर का शत्रु हुआ उसी का विष, समूर की ज़ान का गाहक हुआ उसी का लोम, इसी तरह प्रेमियों की जान ली प्रेम ने सुकरात को मारा सत्य ने, ईसा को प्रेम ने, और करूणा ने कृष्ण को गाँधी को मारा गोडसे ने नहीं, गाँधी के उदात्त ने. नदी का शत्रु हुआ उसका प्रवाह, पहाड़ को डसा ऊँचाई ने, और वनों की देह छलनी की काठ ने. इसी तरह इसी तरह आदमी के भीतर आदमी को मारा आदमी के गुमान ने?
गौर से देखो
अच्छे दिन इतने अच्चे नहीं होते कि हम उन्हें तमगे की तरह टाँक ले ज़िंदगी की कमीज़ पर बुरे दिन इतने बुरे भी नहीं होते कि हम उन्हें पोटली में बाँध पिछवाड़े गाड़ दें या फेंक दे किसी अंधे कूप में अच्छे दिन मसखरे नहीं होते कि हँसे तो हम हँसते चले जाएँ हँसे इस कदर कि पेट में बल पड़ जाए उम्र भर के लिए बुरे दिन इतने बुरे भी नहीं होते कि हम रोएँ तो रोते चले जाएँ और हिमनद बन जाए हमारी आँखें परस्पर गुंथे हुए आते हैं अच्छे दिन और बुरे दिन केकुले के बेंज़ीन के फार्मूले की तरह ग़ौर से देखो अच्छे और बुरे दिनों के चेहरे अच्छे दिनों की नीली आँखों की कोर में अटका हुआ है आँसू और बुरे दिनों के स्याह होंठों पर चिपकी है नन्हीं सी मुस्कान.