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व्रतबंध / कविता वाचक्नवी

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व्रतबंध


यह सच है, सखे!
तोरण नहीं बँधे मेरी देहरी पर.........
बंदनवार भी नहीं झूलते
न झाड़-बुहार ही होती है
वन्या उद्‍भावनाएँ भी छाँटी नहीं गईं
कभी प्रतीक्षा भी नहीं थी
आशा भी नहीं।


बस, जंगल में बसी इक झोंपडी़ की ढुलवाँ छत का पानी
ठीक जहाँ गिरता है
वहीं किसी शिला की कठोरता और शीतलता पर बैठ
रातों में टूटते तारे भी गिन-गिन
नींदें काटी जाती हों,
सूर्य की किरणों के प्रथम स्पर्श में भी
उड़ते धूल-कण ही देखने का अभ्यास बन गया हो,
ऐसी किसी भोर
किसी साँझ में
तुम्हें अयाचित भी समझा हो मैंने
किन्तु
आज मैंने
चकला-बेलन के चारों ओर फैले सूखे आटे में
माचिस की बुझी तीली से
एक कविता उकेर दी।


जब-जब उसे पृष्ठ पर उतारना चाहा-
तब-तब
दाल-भात छुए तुम्हारे हाथ पर
अपनी आँखें टिका
रो लेने की कामना
कागज़ घेर लेती।

मेरी आँखों का नमकीन घोल
तुम्हारी दाल में न जा गिरे ;
कसैली दाल भी क्या परोसी जाती है, भला?


मैं शक्कर और नमक के
फैले डिब्बों के नीचे,
मिटी जाती,
सूखे आटे में उकेरी,
कविता की
कोई पंक्ति
फिर चेष्टा से पढ़ती हूँ
पर सब गड्डमड्ड........।
तुमने भी देखे होंगे
कविता के तुक
और कौतुक,
कोई अधूरी पंक्ति पूरी कर दो न!!



यह सच है, सखे!.......
मेरी भाषा की गढ़न
कविता नहीं लिख सकती,
वाक्‌ और अर्थ के नियंता
सुधीजन
चकला-बेलन की चतुर्दिक् परिधि में फैले आटे में
बुझी तीलियों से
कविता लिखने के अपराध में
दंडित भी करेंगे मुझे,
बवाल भी करेंगे खूब
पर
तुम्हारी दाल-भात छुई उँगलियाँ
आटे में उकेरी कविता को बचा लें
इसी विश्वास से भर
मैं, तुम्हें
अपने चौके में बिठा
अपने हाथों से परस
लवण और शक्कर
सब चखाना चाहती हूँ.....।


बचा सको
आटे में चींटियाँ लगी कविता को
तो
दाल-भात छुआ अपना हाथ दो, सखे!
मैं आँखें टिका
दो आँसुओं से
हस्त-प्रक्षालन करवा दूँ।


संकल्प के मंत्र तो
आते होंगे तुम्हें........?