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पटाक्षेप / सुधीर सक्सेना
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अब लीलाओं के लिए
ज़रूरी नहीं रहा मंच
न ज़रूरी रहे
नट-नटी और सूत्रधार.
ज़रूरी नहीं रही मंच सज्जा
कि अब समूची धरती है लीला का रंगमंच
और तो और
ज़रूरी नहीं रहा अंगराग,
न पीतांबर, न मुकुट,
अब वर्गीकृत नहीं रहीं भूमिकाएँ
कि चाहिए एक अदद धीरोदात्त नायक,
एक अदद रूपगर्विता मुग्धा नायिका,
और एक अदद विदूषक सहचर.
अब खल विदूषक है
और विदूषक नायक
और नायक क्लीव
अब युग नहीं रहा सुखांत या दुखांत का
कि लीला पुरुष की लीला
कभी ख़त्म नहीं होती
चलती रहती है लीला अहर्निश अविराम
पटकथा से पूर्णतः विलोपित कर दिया गया है
शब्द पटाक्षेप.