भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गौर से देखो / सुधीर सक्सेना
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:30, 5 जुलाई 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुधीर सक्सेना |संग्रह= }} अच्छे दिन इतने अच्छे नहीं होत...)
अच्छे दिन इतने अच्छे नहीं होते
कि हम उन्हें तमगे की तरह
टाँक ले ज़िंदगी की कमीज़ पर
बुरे दिन इतने बुरे भी नहीं होते
कि हम उन्हें पोटली में बाँध
पिछवाड़े गाड़ दें
या
फेंक दे किसी अंधे कूप में
अच्छे दिन मसखरे नहीं होते
कि हँसे तो हम हँसते चले जाएँ
हँसे इस कदर कि पेट में
बल पड़ जाए उम्र भर के लिए
बुरे दिन इतने बुरे भी नहीं होते
कि हम रोएँ तो रोते चले जाएँ
और हिमनद बन जाए हमारी आँखें
परस्पर गुंथे हुए आते हैं
अच्छे दिन और बुरे दिन
केकुले के बेंज़ीन के फार्मूले की तरह
ग़ौर से देखो
अच्छे और बुरे दिनों के चेहरे
अच्छे दिनों की नीली आँखों की कोर में
अटका हुआ है आँसू
और बुरे दिनों के स्याह होंठों पर चिपकी है नन्हीं सी मुस्कान.