भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक बस / प्रयाग शुक्ल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:06, 5 जुलाई 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रयाग शुक्ल |संग्रह=यह एक दिन है / प्रयाग शुक्ल }} वहाँ ...)
वहाँ ठंड थी
जहाँ हम थे
हम थे
डाले हुए ओवरकोट
ओवरकोट की जेब में हाथ
वह पूरा एक शहर था
बत्तियाँ जल चुकी थीं,
भाग रही थीं कारें
लोग
हम खड़े थे एक मकान के नीचे
चालीसवें वर्ष में
ढके हुए आसमान ने कहा
यह चालीसवाँ करोड़ों के बीच है ।
हम ठिठुरे फिर हमने एक बस पकड़ी ।