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क़तरा-क़तरा मौत / एम० के० मधु

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ज़िंदगी का
यह कैसा मुक़ाम
जब हर कोई चाहता है पीना
मेरे लहू का जाम

क्यों हो गया है
यह इतना ज़ायकेदार
कि हर किसी की जीभ
लपलपाने लगी है

मैंने तो खाई थीं
समय के चूल्हे पर पकी
तल्खियों की तीखी सब्जियां
और सबकी थाल में परोसा था
अपने आंसू और पसीने की नमक

कुछ भी नहीं चाहा था किसी से
कुछ भी नहीं काटा था किसी का
लेकर जी रहा था
दो गज आकाश
दो गज ज़मीन
दो मुट्ठी रोशनी
दो मुट्ठी अंधेरा

पर हर आस्तीन में
क्यों छिपा है एक ख़ंजर
हर आंख में फैल रही है क्यों
क़तरा-क़तरा मौत
मेरे लिए
सिर्फ़ मेरे लिए।