भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
समझौता / एम० के० मधु
Kavita Kosh से
योगेंद्र कृष्णा (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:52, 9 जुलाई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=एम० के० मधु |संग्रह=बुतों के शहर में }} <poem> जब वह रौ…)
जब वह रौंदता है उसे
अपनी खरीदी हुई ज़मीन समझकर
तब उसकी खरगोशी आंखों में
एक खूंख़ार नाखून चुभता है
और एक ख़ास मौसम में दीवाना हुए
गली-पशु का वहशीपन
उसके मस्तिष्क
के कोमल तारों को काट जाता है
क्षत-विक्षत लहूलुहान तारों के बीच
स्वीकारती रहती है
अपनी जंघाओं पर
मंगलसूत्र का जख्म
वहशी पशु का जुनून
और बढ़ता है
जब मंगलसूत्र
किसी की पराजय, किसी की विजय
का परचम बनता है
धागों के टूटते रेशों के बीच
टूटता उसका मन
नखोर के घावों के बीच
रिसता उसका तन
किसी अनजाने कल के लिए
आज का समझौता है
समझौता ही तो है यह।