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टूट गिरी धूप की मुंडेर / कुमार रवींद्र

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मुरझाए फूलों को गिनते
             हो गई अबेर
आँगन में टूट गिरी धूप की मुंडेर
 
चन्दन की चौकी पर
लेट गयी साँझ
हल्के उजियारे में
रात हुई बाँझ
 
कोहरे में डूब गए काँपते कनेर
 
बर्फ़ीले पतझर को
कंधे पर लाद
हाँफ़ते रहे बरगद
सूरज के बाद
 
कोंपल को जिए हुए हुई बहुत देर
 
लहरों पर टिके-टिके
टूट गई नाव
पनघट पर खड़े रहे
पथरीले गाँव
 
दूर गए जल सारे रेत को बिखेर