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क्रूर महलों के ढाँचे / कुमार रवींद्र
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ऊँची मीनारें हैं
लंबे परकोटे
इस बढ़ती बस्ती में सबके घर टोटे
कैसे हम
सूरज को
इस जगह पुकारें
डूबती हवाएँ हैं
घिरती दीवारें
गुंबज हो रहे बड़े - आसमान छोटे
होते हैं क्रूर बड़े
महलों के ढाँचे
कहाँ-कहाँ साँस घिरी
कौन यहाँ बाँचे
फुरसत है किसे - सभी जमा रहे गोटें
अँधे गलियारे हैं
गहरे तहख़ाने
नकली हो गईं यहाँ
सबकी पहचानें
चेहरे हैं भद्र और अंदर से खोटे